सुर्खियों मे : पॉलीग्राफ टेस्ट और नार्को टेस्ट

पॉलीग्राफ टेस्ट और नार्को टेस्ट: वैज्ञानिक परीक्षण या विवादित विधियाँ?

 प्रस्तावना

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के प्रयासों के तहत कई नए तरीकों को अपनाया जा रहा है, जिनमें पॉलीग्राफ टेस्ट और नार्को टेस्ट प्रमुख हैं। ये दोनों परीक्षण आपराधिक मामलों में सच्चाई का पता लगाने के लिए उपयोग किए जाते हैं। जबकि इनकी प्रभावशीलता पर कई प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं, इन्हें फिर भी काफी मात्रा में प्रयोग किया जाता है। इस लेख में, हम पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट के सिद्धांत, प्रक्रिया, वैधता, और इनके प्रयोग से जुड़े विवादों की चर्चा करेंगे।

 पॉलीग्राफ टेस्ट: परिभाषा और प्रक्रिया

पॉलीग्राफ टेस्ट को आमतौर पर 'लाई डिटेक्टर' टेस्ट के नाम से जाना जाता है। यह परीक्षण व्यक्ति के शारीरिक संकेतकों जैसे कि दिल की धड़कन, रक्तचाप, श्वसन दर और त्वचा की प्रतिरोधकता में होने वाले परिवर्तनों को मापता है। परीक्षण के दौरान, व्यक्ति से कुछ सामान्य और कुछ विशेष प्रश्न पूछे जाते हैं। व्यक्ति की शारीरिक प्रतिक्रिया को मापकर यह निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया जाता है कि वह सच बोल रहा है या झूठ।

 पॉलीग्राफ टेस्ट की प्रक्रिया:

1. प्री-टेस्ट इंटरव्यू: परीक्षण से पहले व्यक्ति से प्रश्न पूछे जाते हैं ताकि उसे तनाव में डाला जा सके। इस दौरान उसे पूरी प्रक्रिया के बारे में बताया जाता है।
2. टेस्ट: व्यक्ति को पॉलीग्राफ मशीन से जोड़ा जाता है और उसे प्रश्न पूछे जाते हैं। मशीन उसके शारीरिक संकेतकों को मापती है।
3. पोस्ट-टेस्ट इंटरव्यू: टेस्ट के बाद प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया जाता है और निष्कर्ष निकाला जाता है कि व्यक्ति सच बोल रहा था या झूठ।

 नार्को टेस्ट: परिभाषा और प्रक्रिया

नार्को टेस्ट में, व्यक्ति को एक विशेष प्रकार की औषधि (सोडियम पेंटोथल) दी जाती है, जो उसे अर्धचेतना अवस्था में ले जाती है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने अवचेतन मन की स्थिति में होता है और उससे प्रश्न पूछे जाते हैं। यह माना जाता है कि इस अवस्था में व्यक्ति सच बोलने के लिए अधिक सक्षम होता है, क्योंकि उसका चेतन मन नियंत्रण में नहीं रहता।

 नार्को टेस्ट की प्रक्रिया:

1. औषधि का प्रयोग: व्यक्ति को सोडियम पेंटोथल की निर्धारित मात्रा दी जाती है, जिससे वह अर्धचेतना में चला जाता है।
2. प्रश्न पूछना: व्यक्ति से सामान्य और विशेष प्रश्न पूछे जाते हैं। इस दौरान वह अपने अवचेतन मन की स्थिति में होता है और सच बोलने के लिए प्रेरित होता है।
3. रिकॉर्डिंग और विश्लेषण: व्यक्ति के उत्तरों को रिकॉर्ड किया जाता है और बाद में उनका विश्लेषण किया जाता है।

 वैज्ञानिक दृष्टिकोण

पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट दोनों की वैज्ञानिकता पर प्रश्न उठते हैं। पॉलीग्राफ मशीन केवल शारीरिक संकेतकों को मापती है और यह निष्कर्ष निकालती है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है या सच। लेकिन यह शारीरिक संकेतक हमेशा सच्चाई या झूठ को नहीं दर्शाते। कई बार व्यक्ति के तनाव या भय से भी शारीरिक संकेतकों में परिवर्तन हो सकता है। इसी प्रकार, नार्को टेस्ट में भी व्यक्ति की चेतना और अवचेतन की स्थिति में सच्चाई का पता लगाना कठिन होता है। औषधियों का प्रयोग व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक और शारीरिक स्थिति को प्रभावित कर सकता है, जिससे उसके उत्तरों की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है।

 वैधता और संवैधानिकता

भारत में, पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट की वैधता पर विभिन्न न्यायालयों में प्रश्न उठाए गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने 2010 में दिए गए एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा था कि बिना व्यक्ति की सहमति के इस प्रकार के परीक्षण उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत किसी व्यक्ति को खुद के विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट को केवल तब ही किया जा सकता है जब व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से इसके लिए सहमत हो।

 विवाद और आलोचना

पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट के प्रयोग से जुड़े कई विवाद सामने आए हैं। कई मामलों में यह देखा गया है कि इन परीक्षणों के परिणाम असमान्य या अप्रत्याशित हो सकते हैं। कई विशेषज्ञों का मानना है कि इन परीक्षणों पर पूर्णतया निर्भर रहना न्याय प्रणाली के लिए सही नहीं है। इसके अतिरिक्त, कई मानवाधिकार संगठन इन परीक्षणों को व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता का उल्लंघन मानते हैं।

 नैतिक और कानूनी प्रश्न

इन परीक्षणों के प्रयोग से कई नैतिक और कानूनी प्रश्न भी उठते हैं। क्या किसी व्यक्ति को सच्चाई बताने के लिए औषधियों का प्रयोग करना उचित है? क्या किसी व्यक्ति के शारीरिक संकेतकों को मापकर उसके झूठ या सच का पता लगाया जा सकता है? इन प्रश्नों के उत्तर अभी भी अस्पष्ट हैं। न्यायपालिका और कानून व्यवस्था के विशेषज्ञ इन परीक्षणों के प्रयोग के बारे में सतर्क दृष्टिकोण अपनाने की सलाह देते हैं।

 निष्कर्ष

पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट आपराधिक मामलों में सच्चाई का पता लगाने के लिए उपयोग किए जाते हैं, लेकिन इनकी प्रभावशीलता और वैधता पर कई प्रश्नचिन्ह हैं। यह आवश्यक है कि इनके प्रयोग से पहले व्यक्ति की सहमति ली जाए और इनके परिणामों पर पूर्णतया निर्भर न रहा जाए। न्याय प्रणाली को अन्य वैज्ञानिक और पारंपरिक तरीकों का भी उपयोग करना चाहिए ताकि सच्चाई का पता लगाने में कोई त्रुटि न हो। इन परीक्षणों के प्रयोग के दौरान मानवाधिकारों का पालन और न्याय के सिद्धांतों का सम्मान आवश्यक है।

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